Thursday, March 25, 2010

मेरी प्या...री माँ

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जब चला जाता हूँ मैं , एक ऐसी दुनिया में ..

जहाँ स्थित है मेरी कामनाओं की परिभाषा , जहाँ ‘दुःख’ एक अनजाना शब्द है , जहाँ डर नहीं है लोगों का , जहाँ प्रतीत होता है- मानो जीवन को एक नया जीवन मिल गया हो, जहाँ किसी वास्तु को चाहने की चाहत ही ना हो , जहाँ एक कृष्ण - काय भयानक रात्री को सुख से व्यतीत करने हेतु पर्याप्त ख़ुशी हो , जिसे मन करता है अपनी यथाशक्ति पकड़ लूँ , मानो ये आँचल हो एक अबोध बालक की आकांशाओं का …

तभी ..मखमली एहसास देता , नर्म अरमानों में जान देता , मेरी सुखी दुनिया को छीन कर पुनः अपेक्षाकृत सुखी दुनिया देता , नए दिन - नयी चेतना को मेरे अन्तः स्थल तक पहुंचाता , मृत आशाओं को अम्रत्पान कराता —एक हाथ.. रेशमी चादर को चीरते हुए मेरे गालों तक पहुँचता है , एक जीवनदायक वाणी मेरी श्रवण -शक्ति को जागरूक करती मेरे मस्तिष्क तक पहुँचती है . मैं तन्द्रा की गोद से उठ बैठता हूँ - एक नया जीवन मेरे सामने होता है और उसमे जान देने के लिए होता है एक प्याला .. जिसकी महक विवश कर देती है मुझे कहने पर …

मेरी प्या...री माँ ”.